तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Wednesday 11 January 2012

यादें .................आलोक तिवारी


एकाएक बंद हो गई
उन कदमो की आवाज़
आना
हम होते जिनके
अभ्यस्त |

अख़बार यूँ ही
रह जाते बिन
पलटाये
खाली ही रह जाती
वर्ग पहेली |

अलसुबह चाय ले जाते
हुए ठिठक गया
सूनी आराम कुर्सी देखकर
वो , जो मुददतो पहले
चले गए
पर उनकी याद में
आ गए
आँखों में ताजा गर्म आंसू|

चश्मे की गर्माहट
महसूस की थी कई बार
जब तुरंत उतरे चश्मे को
हाथो में लिया था
अब ठण्डा है|

अनायास नाम बदल गया
पता वही है
चिठ्ठियाँ आती है
मेरे नाम से
उनका नाम न होने से
हर बार कुछ और
टूट जाता हूँ मै |

पौधो की रंगत
उड़ चुकी है
बेरंग पौधे में
बेमन से खिले हुए है
कुछ फुल
वो ढूंढ़ते है
उन हाथों की
ऊष्मा |

कमरे से कोई नहीं
देता आवाज
न देर से आने की
वजह पूछता है
चुपचाप गुजर जाता हू मै
अपने कमरे तक |

उम्रदराज लोग
याद करके सुनाते
कुछ अनसुने किस्से
माँ के जाने के बाद
किस कदर टूट चुके थे
मुझको लेकर
फिक्रमंद थे
पिता के दोस्त
जो आखरी कुछ
गवाह है
जिन्होंने देखा
मेरा और पिता का प्रेम
एक दूसरे के प्रति |
--आलोक तिवारी

1 comment: