तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Tuesday 29 November 2011

अब फलक पर कोई तारा भी नहीं.........................ज़नाब साबिर इंदौरी

हिज्र की सब का सहारा भी नहीं
अब फलक पर कोई तारा भी नहीं

बस तेरी याद ही काफी है मुझे
और कुछ दिल को गवारा भी नहीं

जिसको देखूँ तो मैं देखा ही करूँ
ऐसा अब कोई नजारा भी नहीं

डूबने वाला अजब था कि मुझे
डूबते वक्त पुकारा भी नहीं

कश्ती ए इश्क वहाँ है मेरी
दूर तक कोई किनारा भी नहीं

दो घड़ी उसने मेरे पास आकर
बारे गम सर से उतारा भी नहीं

कुछ तो है बात कि उसने साबिर
आज जुल्फों को सँवारा भी नहीं।...प्रस्तोता....दीपक असीम
(ये ज़नाब साबिर इंदौरी साहब की उन आखिरी ग़ज़लों में से एक है, 
जिसे उन्होंने कहीं नहीं पढ़ा, किसी को नहीं सुनाया।)

Sunday 27 November 2011

नारी शक्ति................चरणलाल

नारी चाहे तो आकाश धरा पर लादे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे
नारी ने विपदा झेली है
नारी शोलों से खेली है
नारी अंगारों पर चलकर
अंगारों की ताप मिटा दे
नारी चाहे तो पत्थर को पानी कर दे
और पानी में आग लगादे
नारी चाहे तो आकाश धरा पर लादे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे
नारी नर की निर्माता है
नारी देवों की माता है
नारी नर को शक्ति देती
नारी से नर सुख पाता है
नारी जो चाहे सो करदे
गागर में सागर को भर दे
तूफानों से टक्कर लेले
मरुभूमि में पुष्प खिला दे
नारी चाहे तो आकाश धरा पर लादे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे
यूं तो नारी अबला बनकर
पत्थर का भी दिल हर लेती
मानवता की रक्षा हेतु
कभी भयंकर नागिन बनकर
बड़े विषधरों को डस लेती
और पुरुष जब टेढा चलकर
अपने घर को छत्ती पहुंचाए
इस संकट में नारी बुद्धि
नर के पथ को सीधा कर दे
नारी चाहे तो आकाश धरा पर ला दे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे .

"चरण"
गुरुवार, जून- 23, 2011

नीर कब तक यूँ बहाओगे .......................... मुकेश ठन्ना

नीर कब तक यूँ बहाओगे ,,

कब तलक सबको रुलाओगे ,,

छोड़ दो दुनिया के ये झूठे रवाज ,,

खुद को यूँ कब तक जलाओगे ,,

....सत्य से अब तुम यूँ लड़ना छोड़ दो ,,

झूठ का अब आसरा भी छोड़ दो ,,

उठ खड़े हो जाओ अब तुम इस तरह ,,

की जिंदगी को इक दिशा में मोड़ दो ,,
---------मुकेश ठन्ना

मैं यशोदा की वो बेटी.........आभा बोधिसत्व

मैं यशोदा की वो बेटी
जिसे ना नन्द बाबा ने बचाया ना वासुदेव ने
दोनों पिता थे और दोनों ने मिलकर मारा मुझे
ये तो अच्छी बात नहीं

सोती रही यशोदा माता
उसे तो यह भी नहीं पता
उसने जना था बेटी या बेटा !

बेटे की रक्षा के लिए मारी गयी बेटी
बेटा जुग जुग जिए
बेटा राज करे
कह -कह कर मारी गयी बेटी

कंस मामा ने तो बाद में मारा
उससे पहले पिता ने कंस मामा के हाथो में सौप कर
कंस मामा ने तो पत्थर पर पटका था केवल !

बेटी हू जानकार
गिर्द्गिदायी माँ देवकी
मरी मैं
बचा तुम्हारा बेटा
मैं मरी और मरती रही तब से अब तक
तब मरी कृष्ण के लिए
अब मरती हू किसी
मोहन,मुन्ना,दीपक के लिए
इन्ही कुल दीपक केलिए
बुझती रही मैं बार बार
ताकि कुल रहे उजियार
जिए जागे गाती रही मैं
तब भी
मरती रही मैं........
क्यूंकि मैं बेटी थी तुम्हारी
मुझे तो मरना ही था
तुम ना मारते पिता तो कोई दुर्योधन मारता मुझे
सभा के बीच साड़ी खीच कर
मुझे तो मरना ही था !!!!!!


प्रस्तुत कर्ताः सिद्धार्थ सिन्हा

मेरी ग़ज़ल यात्रा...........डॉ. वर्षा सिंह


मेरी ग़ज़ल यात्रा...........डॉ. वर्षा सिंह


Tuesday 22 November 2011

धूल मिट्‍टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा...............मुनव्वर राना

कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

जो भी दौलत थी वह बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

जिस्म पर मेरे बहुत शफ्फाफ़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्‍टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा

भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा

अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिंदों के न होने से शजर अच्‍छा नहीं लगता

धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है 
---मुनव्वर राणा

Sunday 20 November 2011

एक फेसबुकिया कविता..................संजीव तिवारी

 कविताएं भी लिखते हो मित्र..
मुझे हौले से उसने पूछा..
कविताएं ही लिखता हूं मित्र..
मैने सहजता से कहा.
भाव प्रवाह को..
गद्य़ की शक्ल में न लिखते हुए..
एक के नीचे एक लिखते हुए..
इतनी लिखी है कि..
दस बीस संग्रह आ जाए.
डाय़री के पन्नों में..
कुढ़ते शब्दों नें..
हजारों बार आतुर होकर..
फड़फड़ाते हुए कहा है..
अब तो पक्के रंगों में..
सतरंगे कलेवर में..
मुझे ले आवो बाहर..
पर मै हूं कि सुनता नही..
शब्दों की
शाय़द इसलिए कि..
बरसों पहले मैंनें..
विनोद कुमार शुक्ल से..
एक अदृश्य़ अनुबंध कर लिय़ा था..
कि आप वही लिखोगा..
जो भाव मेरे मानस में होंगा..
और उससे भी पहले मुक्तिबोध को भी मैंने..
मना लिय़ा था
मेरी कविताओं को कलमबध्द करने.
इन दोनों नें मेरी कविताओं को..
नई उंचाइय़ां दी..
मेरी डाय़री में दफ्न शब्दों को..
उन तक पहुचाय़ा..
जिनके लिय़े वो लिखी गई थी..
उनकी हर कविता मेरी है..
क्य़ा आप भी मानते हैं की
उनकी सारी रचनाएं आपकी है. 
-संजीव तिवारी

आग, कम्बल, छत नहीं, सोये कहाँ ग़रीब..........ललित कुमार

थामोगी या छोड़ोगी मेरा हाथ ज़िन्दगी
कब बीतेगी कहो ये काली रात जिन्दगी

मुझसे वादा किया है तूने वो भूलना नही
जिस बाबत हुई थी तेरी-मेरी बात ज़िन्दगी

जन्मों का है जब साथ तो बेकरारी क्यों
अभी तो बाकी हैं पड़ने फेरे सात ज़िन्दगी

आग, कम्बल, छत नहीं, सोये कहाँ ग़रीब
ठंड में कांप रहा है तन का पात ज़िन्दगी

माना के तूफ़ां तेज़ है पर लड़ने तो दे ज़रा
होगी ग़र तो मानेंगे शह-ओ-मात ज़िन्दगी 
-ललित कुमार (जून 06....2011)

Thursday 17 November 2011

तेरी महफिल................................आलोक तिवारी

तेरी महफिल में मातम कम न होंगे ।
न होंगे हम क्या तो क्या ये ग़म न होंगे ।।

वो मरक़द तक हमारे क्यूं न आए ।
शिकस्ता पा सही बेदम न होंगे ।।

मेरी बरबादियों पे मेरे अपने ।
बहुत ख़ुश होंगे चश्मे नम न होंगे ।।

न छाऐंगी घटाऐं आसमाँ पर ।
तेरे गेसू अगर बरहम न होंगे ।।

सफर मंज़िल का हो पुरलुत्फ क्यूं कर ।
अगर राहों में पेच-ओ-ख़म न होंगे ।।

उठेंगी उंगलियाँ हक़ गोई पर भी ।
मेरे ऐ “शौक़” चर्चे कम न होंगे 
----आलोक तिवारी

Tuesday 15 November 2011

दर्द.........................सुमन 'मीत'

... कुछ रोज पहले ही
जिया था मैंने तुझको
अपनी साँसों को कर दिया था
नाम तेरे
मेरा दिल धड़कने लगा था
तेरी ही धड़कनों से
कर ही दिए थे बन्द
सभी दर-ओ-दीवार बेजारी के
बस तेरी ही महक से
कर लिया था सरोबार
वजूद अपना ।

जिस्म से उठती थी
इक खुशबू सौंधी सी
जो करा देती थी
तेरे होने का एहसास
हर बार-हर पल मुझको ।

हुआ यूँ भी
गए रोज ;
तड़पती रही साँसे
तेरी महक के लिए
धड़कनों के लिए
तरसती रहीं धड़कने मेरी
इस बीच
न जाने कब से

आने लगी मौत
दबे पाँव करीब मेरे
बन गए हैं जिस्म पर
कुछ अनचाहे जख्म
रिसने लगी है
कड़वाहट हमारे रिश्ते की
जो कभी घुलती थी
‘सबा’ बन मेरे जिस्म-ओ-जाँ में
अब तो तैरते हैं
आँखों में गम के खारे बादल ।

गम के बादल
घिर-घिर आते हैं
जो बना ही लेते हैं राह
बरसने के लिए
रात की तन्हाई में
और फिर खामोश आँखें
पत्थरा जाती है
झरती हैं रात-रात भर
झरने सरीखी |

सुमन 'मीत'
(आदरणीय ओम पुरोहित कागद जी को समर्पित)

चेतावनी.....................चरऩ लाल

चेतावनी
मैंने अपने बच्चे से कह दिया है
अभी से
थोड़ा थोड़ा विष पीना प्रारंभ कर दे
ताकि
मेरी आँख बंद होने तक
तू इतना जहरीला हो जाए
कि ये दुम हिलाउ कुत्ते
जो पूरे के पूरे जहर में बुझे हुये हैं
जब तुझे काटने को लपके
तो तेरी जहरीली गंध मात्र से
बेहोश होकर छटपटाने लगे
तब मेरी आत्मा कहीं दूर
अथाह प्रसन्नता से नाच उठाएगी
और में समझूंगा जीकर ना सही
किंतु मरकर मैंने कुछ पा लिया है
मेरे बच्चे
ये सांप
नीले -पीले -हरे -लाल -काले -सफेद
सब एक ही हैं धोखा मत खाना
इन सबकी जुबान पर इंसानियत का खून लगा है
तेरा कुनकुना खून चातने के लिए
जब इनकी जीभ लपलपाये
तू दूर मत भागना
अपितु
सीना तानकर सामने खड़े हो जाना
क्यों कि तेरे अन्तर में समाविष्ट विष
इतनी क्षमता रखता है
कि
जो तुमसे टकरायेगा
चूर चूर हो जायेगा .

----"चरण"

Monday 14 November 2011

अन्तरात्मा............डॉ. दीप्ति गुप्ता

हम सबके अन्दर एक
निश्छल मानुष रहता है,
मन कपटी नहीं होता उसका,
वह उजला ही रहता है,
कितने ही हम पाप करे,
और दूजे पर दोष मढ़े
पर वह स्वच्छ कमल की भाँति
पंक रहित ही रहता है
अन्याय का पक्ष न लेता,
बात न्याय की कहता है
हम उसको परतों में
अगणित दूर दफन कर देते हैं
करते जाते मन की
अपनी अपनी दुनिया जीते हैं
फिर भी उसकी क्षमता इतनी
दमित तनिक न होती है
बुरे कामों की देख श्रृंखला
हमें ताड़ना देता है
राह दिखाता सीधी – सच्ची
खरी बात ही कहता है
पुण्य पुनीत चन्दा प्यारा सा
हर दम दमका करता है
करे विरोध उसका कितना भी
वह अविचल ही रहता है
ठोकर खाकर गिरने पर
वह थाम हमें झट लेता है
फिर भी हम नहीं सुनते एक
मनमानी करते भरपेट
अन्तरतम में ध्यान मगन
हम पे मुस्काया करता है !!
--डॉ. दीप्ति गुप्ता

Saturday 12 November 2011

सब जानते हैं...............राजीव उपाध्याय

सब जानते हैं,
मैं,
आप,
और सारी दुनिया,
कि विवश है नारी,
परतंत्रता कि बेड़ियों ने जकड़ा है उसे,
काव्य गोष्ठियों में,
विचार मंचो में,
और कला प्रदर्शनियों में वाह-वाही करने वाले,
''''हम'''
क्यूँ भूल जाते हैं,
अपने घर में लौटते ही,
सब कुछ.........
गंभीर प्रश्न.....?
सच ही.......
नारी विवश है हमारे आगे,
और हम विवश हैं अपने स्वभाव के आगे........
--राजीव उपाध्याय

दिन की कथा...............दिनेश जोशी

(एक)
अलभोर में
जो भोर तारा 
अलसाया,
सूरज लाल हुआ
क्षितिज में
कसमसाया...

(दो)
रात झेंपी-झेंपी 
अचिन्ही
फुसफुसाहटों से,
चाँद है कि
जागता
चिन्ही आहटों से...

(तीन)
अहर्निश 
चली आती दुपहरी 
तपती गोद में
सुबह लिए,
चाक ओढ़नी में
शाम किये...
-----.दिनेश जोशी

कितना चाहते है मुझे लोग .....मोहन बंजारा

मैं मोहब्बत गर करता हूँ तुमसे ,
इस बात पर क्यूँ अक्सर जल जाते हैं लोग

कोशिशें लाख करें बच नहीं पाते हैं लोग ,
हुस्न की आग से अक्सर पिघल जाते हैं लोग

 हर कोई चाहता है मोहब्बत में जीना ,
जाने क्यूँ फिर वफ़ा निभाना भूल जाते हैं लोग,

दर्द के लम्हात गर कभी पेश-ए-नज़र होते ज़माने वालों को,
जान जाते ये वो भी कि कैसे टूट कर बिखर जाते हैं लोग

तन्हाइयों में जीना मेरी आदत सी बन गयी है,
क्यूँ तन्हा करके मुझे अब कसमसाते हैं लोग

खुशियाँ जो हमसफ़र थी कभी ,ज़माने को बुरी लगती थी,
ग़म का भी गर सहारा है मुझे तो फिर भी आज तिलमिलाते हैं लोग

जाने क्या समझता है ये ज़माना  इस 'बंजारे ' को
छीन कर खुशियाँ मेरी ,ग़म मेरे नाम कर जाते हैं लोग..... बंजारा

अगर हो सके तो .......................अज्ञात

अज्ञात कवि की इस रचना को मेरी मित्र सोनू अग्रवाल ने फेसबुक में पोस्ट किया.............
अगर हो सके तो ...

मुझे अपनी आँखों मैं रखना ,,,

आँसु बन कर बह जाऊ तो ,

हाथो मैं छुपा लेना..!!

अगर हो सके तो ...

मुझे हवाओ मैं बिखेर देना ,,,

तुम्हे छू कर चला जाऊ तो ,

मुझे महसूस कर लेना..!!

अगर हो सके तो ...

मुझे एक फूल समझ लेना,,,

मुरझा भी जाऊ तो ,

किताबो मैं रख लेना..!!

अगर हो सके तो ...

मुझे अपनी खुवाहिश समझ लेना,,

अगर कभी जो मिल न पाऊ तो ,

मुझे अपनी दुआओ मैं रख लेना... !!!

Thursday 10 November 2011

आँख उनसे मिली.......................डॉ.(श्रीमती) तारा सिंह

आँख उनसे मिली तो सजल हो गई
प्यार बढ़ने लगा तो ग़ज़ल हो गई

रोज़ कहते हैं आऊँगा आते नहीं
उनके आने की सुनके विकल हो गई

ख़्वाब में वो जब मेरे करीब आ गये
ख़्वाब में छू लिया तो कँवल हो गई

फिर मोहब्बत की तोहमत मुझ पै लगी
मुझको ऐसा लगा बेदख़ल हो गई

वक्त का आईना है लबों के सिफ़र
लब पै मैं आई तो गंगाजल हो गई

'तारा' की शाइरी किसी का दिल हो गई
ख़ुशबुओं से तर हर्फ़ फ़सल हो गई 

---डॉ.(श्रीमती) तारा सिंह

रूहानी आँखे.................~अमि 'अज़ीम '

आप की अपनी कहानी आँखे
है महोब्बत की जुबानी आँखे

इन खिजां राहों पे भी रौशन है
वो जुगनुओ सी रूहानी आँखे

भीगी नजरों में आपका चहरा
इक झलक की है दिवानी आँखे

पलकें बोझिल , ख्वाब काँटों से
है दर्दे-दिल की निशानी आँखे

मत करो प्यार उलझ जाओगे
सच ही कहती है सियानी आँखे
~अमि 'अज़ीम '

Wednesday 9 November 2011

इंतजार की घड़ी................सी. आर. राजश्री

भुलाये नहीं जाते वो पल,
संग तुम्हारे थे जब हम कल।
प्यार से भरा स्पर्श का वो लम्हा,
सताते है जब रहते है हम तन्हा।

याद तुम आते हो बहुत मुझे
पर कौन अब ये बतायेगा तुझे?
महसूस करती हूँ तुम्हारी कमी,
शायद तुम अब आ जाते कहीं।

संजोयी है मैंने, कुछ हसीन यादें,
खाये थे जब हमने, जीने मरने की वादे।
छेड़ने, रूठने, मनाने का वो सिलसिला,
रूलाती है मुझे, भरती है मन में गिला।

अब और न तड़पाओ, चले आओ,
इन आँखों को न तरसाओ, लौट आओ।
थक गई हूँ, तुम्हारी राह निहारती,
भर लो बाँहो में साजन, मिटा दो इंतजार की घड़ी।
-----सी.आर.राजश्री

Tuesday 8 November 2011

नजर अपनी अपनी,,,,,,,,,,,,,,,,,,पाराशर गौड़

एक बच्चे की
आँख की रोशनी पल पल जाती रही
कम होती गई
माँ-बाप को हुई चिंता
इसका का क्या होगा ?
गर---इसकी रोशनी चली गई ।
बाप बोला .. .. .. ..
एक काम करें
इसकी आँखों की रोशनी कम होने पहले
क्यों ना, अखबारों में
इशतहार दें ...
"एक बच्चे को आँखें चाहिए
उसे अन्धा होने से बचाएँ ... "
कुछ दिनों के बाद
टेलीफोन खड़के, आवाज आई
मुबारक हो..
आपके बच्चे को आँखें मिल गईं ।
माँ-बाप ने दी दुआ ..
आप्रेशन हुआ
पट्टी खुली, माँ बोली .. ..
"बेटा, कुछ दिखाई दे रहा है
वो, बोला ---- "हाँ"
ये सुनकर सब की बाँछे खिलीं
आवाज आई...
"शुक्र है खुदा का और उसका भी,
जिसकी आँखें इसे मिलीं।"
वो उठा ----,
सब को वहीं छोड़
सामने कुर्सी की ओर दौड़ा
धम्म से जा धस्सा ..
बैठा उसमें होकर चौड़ा
सब एक दूसरे को देखते रहे
इशारों से पूछते रहे ---
ये ऐसा क्यों कर रहा है
ये क्या हो रहा है।
तभी किसने कहा ..,
इसमे इसका कोई दोष नहीं
ये बात, आपकी समझ में नहीं आयेगी
दरसल, इसको जो आँखें मिली हैं, वो
वो, किसी नेता की हैं
वो आप लोगों को थोड़ी देखेंगी
वो -- तो.. .. कुर्सी को देखेंगी।

,,,,,,,,,,,,,पाराशर गौड़

Monday 7 November 2011

इन्तज़ार रहता है............अशोक वशिष्ट

मुझे मौत का, मौत को मेरा, इन्तज़ार रहता है,
साहब से कब मिलना होगा, इन्तज़ार रहता है?

जीवन भोगा, इस जीवन का, हर सुखदुख भी भोगा,
अब उस दुनियां के सुखदुख का, इन्तज़ार रहता है।

सोचता हूँ कि इकदिन, उस दुनियां का सच जानूँगा,
जाने क्यों उस दिन, उस पल का, इन्तज़ार रहता है?

मानव की किस्मत में जाने, कितना सफ़र लिखा है?
इसको कब जानूँ कब समझूँगा, इन्तज़ार रहता है?

उससे बिछड़के जीना कितना, मुश्किल हो जाता है!
फिर जीना आसां कब होगा , इन्तज़ार रहता है?

लोग न जाने क्यों मरने से, डरते ही रहते हैं?
मरके मंज़िल को पा जाऊँगा, इन्तज़ार रहता है।
--------अशोक वशिष्ट